आपका हमारी वेबसाइट पर स्वागत है !

आप सभी लोगों को मेरा निवण प्रणाम ।

श्री गुरु जंभेश्वर भगवान का परिचय

श्री गुरु जंभेश्वर भगवान विश्नोई संप्रदाय के संस्थापक थे । गुरु जम्भेश्वर भगवान को हम जाम्भोजी नाम से भी जानते हैं । वे विश्व के पहले पर्यावरणविद थे । उनका जन्म सन 1451 की कृष्ण जन्माष्टमी को हुआ था । उनका जन्म राजस्थान के पीपासर नामक गांव में हुआ था । उनकी माता का नाम श्रीमती हंसा देवी तथा पिता का नाम श्री लोहट पंवार था । गुरु जंभेश्वर विष्णु भगवान के अवतार थे । 7 वर्ष की आयु तक वे मौन रहे । 27 वर्ष की आयु तक उन्होंने गौ माता की सेवा की । 34 वर्ष की आयु में सन 1485 की कार्तिक बदि अष्टमी के दिन उन्होंने विश्नोई संप्रदाय की स्थापना की । खेजड़ी वृक्ष के नीचे सन 1536 की मार्गशीर्ष कृष्णा नवमी के दिन गुरु जम्भेश्वर भगवान ने मनुष्य योनि को त्याग दिया था । विश्नोई वे लोग होते हैं जो गुरु जंभेश्वर भगवान द्वारा दिए गए 29 नियमों का पालन करते हैं ।

गुरु जंभेश्वर भगवान द्वारा दिए गए 29 नियम :-

1. तीस दिन सूतक रखना ।

2. पांच दिन ऋतुवन्ती स्त्री का गृहकार्य से पृथक्‌ रहना ।

3. प्रतिदिन सवेरे स्नान करना ।

4. शील का पालन करना व संतोष रखना ।

5. बाह्य और आन्तरिक पवित्रता रखना ।

6. द्विकाल संध्या उपासना करना ।

7. संध्या समय आरती और हरिगुण गाना ।

8. निष्ठा और प्रेमपूर्वक हवन करना ।

9. पानी , ईंधन और दूध को छान कर प्रयोग में लाना ।

10. वाणी विचार कर बोलना ।

11. क्षमा-दया धारण करना ।

12. चोरी नहीं करनी ।

13. निन्दा नहीं करनी ।

14. झूठ नहीं बोलना ।

15. वाद-विवाद का त्याग करना ।

16. अमावस्या का व्रत रखना ।

17. विष्णु का भजन करना ।

18. जीव दया पालणी ।

19. हरावृक्ष नहीं काटना ।

20. काम, क्रोध आदि अजरों को वश में करना ।

21. रसोई अपने हाथ से बनानी ।

22. थाट अमर रखना ।

23. बैल बधिया नहीं कराना ।

24. अमल नहीं खाना ।

25. तम्बाकू का सेवन नहीं करना ।

26. भांग नहीं पीना ।

27. मद्यपान नहीं करना ।

28. मांस नहीं खाना ।

29. नीला वस्त्र व नील का त्याग करना ।

अष्टधाम :-

1. पीपासर :- यहां सन 1451 की कृष्ण जन्माष्टमी के दिन गुरु जम्भेश्वर भगवान का जन्म हुआ था ।

2. समरथाल धोरा :- यहां पर सन 1485 की कार्तिक बदि अष्टमी के दिन गुरु जम्भेश्वर भगवान ने बिश्नोई धर्म की स्थापना की ।

3. मुकाम :- यहां गुरु जम्भेश्वर भगवान की समाधि स्थित है ।

4. लालासर साथरी :- यहां पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे सन 1536 की मार्गशीर्ष कृष्णा नवमी के दिन गुरु जम्भेश्वर भगवान ने मनुष्य योनि को त्याग दिया था ।

5. जांगलू :- यहां पर गुरु जम्भेश्वर भगवान के चोळा,चिम्पी तथा भिक्षा पात्र रखे हुए हैं ।

6.जाम्भोळाव तालाब :- यहां पर गुरु जम्भेश्वर भगवान ने तीर्थ स्थल का निर्माण करवाया जो पहले लुप्त हो चुका था

7. रोटू :- यहां पर सन 1515 में गुरु जम्भश्वर भगवान ने ऊमा का भात भरा था तथा राव दूदे का खांडा(तलवार) जो उन्हे गुरु जम्भेश्वर भगवान ने दिया था वो यही रखा हुआ है ।

8. लोदीपुर :- भगतों के आग्रह पर गुरु जम्भेश्वर भगवान यहाँ पधारे थे तथा इस क्षेत्र में खेजड़ी का वृक्ष लगाया था ।

363 शहीद कथा :-

यह सन 1730 की बात है जोधपुर का राजा अभय सिंह नए महल का निर्माण करवा रहा था । महल के निर्माण के लिए उसे लकड़ियों की आवश्यकता थी । राजा ने अपने सैनिकों को लकड़ी लाने के लिए भेजा । राजा के सैनिक खेजड़ली गांव में पहुंचे। वहां पर राजा के सैनिक वृक्षों को काटने लगे तो अमृता देवी नाम की महिला ने उनका विरोध किया और कहा कि हम वृक्षों को नहीं काटने देंगे क्योंकि हमारे गुरु जंभेश्वर भगवान ने हमसे कहा है की हरा वृक्ष नहीं काटना । हम इन वृक्षों को काटने नहीं देंगे और अमृता देवी विश्नोई खेजड़ी के वृक्ष से चिपक गई । राजा के सैनिकों ने अमृता देवी को वृक्ष के साथ ही काट दिया । फिर उसके बाद अमृता देवी की तीन बेटियां भी वृक्षों के साथ आकर चिपक गई । यह बात पूरे गांव में और आसपास के गावों फैल गई और गांव के विश्नोई समाज के लोग आए और खेजड़ी के वृक्षों से चिपक गए । सैनिकों ने उन लोगों को वृक्षों के साथ ही काट दिया । 363 विश्नोई पेड़ों की रक्षा करने के लिए शहीद हो गए ।

हासम कासम एवं सिकंदर लोदी कथा :-

यह सिकंदर लोदी के समय की बात है । गंगा पार रहने वाले कुछ विश्नोई समराथल धोरे गुरु जंभेश्वर भगवान जी के पास जा रहे थे । वे दिल्ली में एक जगह रुके । वहां पर रुक कर बिश्नोईयों ने विष्णु भगवान के नाम का स्मरण किया भजन , साखी और आरतियों का गायन किया । उन सभियों की पोशाक सफेद थी । उन सभी बिश्नोईयों को दो शाही दर्जी हासम कासम ने देखा । हासम कासम उन बिश्नोईयों के पास गए और उनसे पूछा आप कौन हो , कहां से आए हो और कहां जा रहे हो । उन्होंने बताया कि हम गंगा पार रहने वाले हैं हम समराथल धोरे जा रहे हैं जंभेश्वर भगवान के पास । वे हमें ज्ञान उपदेश देंगे तथा इस जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति दिलाएंगे । हासम कासम दोनों का दिल साफ था वे भी जन्म मरण के चक्कर से छूटना चाहते थे । इसलिए वे बिश्नोईयों के साथ समराथल धोरे पर चले गए । समराथल धोरे पर जाकर उन्होंने 29 नियमों को धारण किया । गुरु जंभेश्वर भगवान जी के ज्ञान उपदेश को सुना और वे पुनः दिल्ली आ गए । दिल्ली में सुबह जल्दी उठते, हवन करते, कभी भी झूठ नहीं बोलते, विष्णु भगवान के नाम का स्मरण करते और 29 नियमों का पालन करते । यह सब एक काजी ने देख लिया वह काजी सिकंदर लोदी के पास गया और उनको यह बात बताई कि आपके राज्य में दो मुसलमान काफिर हो गए हैं । सिकंदर लोदी ने हासम कासम को बुलाया और कहां तुम मुसलमान होकर ऐसा क्यों कर रहे हो । तुम ऐसा गुनाह कैसे कर सकते हो । हासम कासम ने कहा हम कोई भी गुनाह नहीं कर रहे हम तो गुरु जंभेश्वर भगवान जी की सीख पर चलकर विष्णु भगवान के नाम का स्मरण कर रहे हैं एवं हमने 29 नियमों को धारण किया है । जिससे हम इस जन्म मरण के चक्कर से छूट जाएंगे । सिकंदर लोदी ने हासम कसम को गौ‌ माता के साथ जेल में बंद कर दिया और कहा या तो इस ग‌‌‍‍ऊ को हलाल करो मार डालो । वरना तुम्हें कल सुबह फांसी दे दी जाएगी । हासम कासम ने विष्णु भगवान का नाम स्मरण किया । गुरु जम्भेश्वर भगवान को आभास हुआ कि भगत दुविधा में हैं । जम्भेश्वर भगवान अपने शिष्य रणधीर जी के साथ दिल्ली पहुंच गए । फिर किले के भीतर चले गए सिकंदर लोदी सो रहा था । उसकी नींद खुली और उसने देखा कि दो व्यक्ति उसके किले में आ गए हैं । उसने सैनिकों से गुरु जंभेश्वर भगवान एवं रणधीर जी पर हमला करवाया परंतु गुरु जंभेश्वर भगवान जी ने एक तरफ जल की दीवार खड़ी कर दी और एक तरफ अग्नि ने उनका रास्ता रोक लिया जिससे सिकंदर लोदी उनके कुछ नहीं कर सका । अंत में सिकंदर लोदी ने हार मान ली और गुरु जंभेश्वर भगवान के चरण में आ गया गुरु जंभेश्वर भगवान को परखने के लिए उसने एक मरी हुई गौ माता को भी गुरु जंभेश्वर भगवान के सामने रखा गुरु जंभेश्वर भगवान ने कमंडल से जल निकाला और उसके ऊपर छिड़क दिया जिससे वह गौ माता पुनः जिंदा हो गई । गुरु जंभेश्वर भगवान ने सिकंदर लोदी से कहा कि तुम हासम कासम को छोड़ दो । सिकंदर लोदी ने हासन कासम को छोड़ दिया । सिकंदर लोदी के आग्रह पर गुरु जंभेश्वर भगवान ने सिकंदर लोदी को उपदेश दिया और कहा कि हक की कमाई करके खाओ । गुरु जंभेश्वर भगवान ने सिकंदर लोदी को अपने पास से कपड़ा दिया और कहा कि तुम इसकी टोपी सिलकर बाजार में बेचो । मुनाफे का अन्न लेकर आओ । उसको अपनी रानियों से पिसवाओ और उसका भोजन बनाकर खाओ और विष्णु भगवान के नाम का स्मरण करो । तब तुम्हारे सारे पाप मिट जाएंगे और तुम जन्म मरण के चक्कर से मुक्त हो जाओगे । सिकंदर लोदी ने गुरु जंभेश्वर भगवान की बात को माना और उनके कहे अनुसार जीवन यापन करने लगा । यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं है यह एकदम सत्य है । हमें भी विष्णु भगवान के नाम का समरण करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

ऊमा भात कथा :-

रोटू गांव में जोखाराम भादू नाम का व्यक्ति रहता था । उसकी पत्नी का नाम चावली देवी था । उसके चार पुत्र तथा एक बेटी थी । उसकी बेटी का नाम ऊमा था । ऊमा के पति का नाम धर्मचंद था । ऊमा तथा धर्मचंद जांभोजी के शिष्य बन गए । यह बात ऊमा के पिता जोखाराम को पसंद नही आई । जोखाराम ने ऊमा के ससुराल जाकर ऊमा से कहा की ऊमा तुम मेरे द्वारा बताए गए मार्ग पर चलो परन्तु ऊमा ने कहा की मैं तो मेरे गुरु जाम्भोजी द्वारा बताए गए मार्ग पर ही चलूँगी । उसके पिता जोखाराम ऊमा से नाराज हो गये और अपने घर आकर अपने पुत्रों से कहा की अगर कोई भी शादी समारोह होगा तो ना ही हम उमा को बुलाएंगे और न ही हम उमा के घर जाएंगे । ऊमा तथा धर्मचंद विष्णु भगवान का भजन तथा जाम्भोजी के द्वारा बताये गये मार्ग पर चलकर जीवन व्यतीत कर रहे थे । ऊमा ने अपनी पुत्री का विवाह रखा । ऊमा अपने मायके अपने पिता और भाइयों को भात का निमंत्रण( बत्तीसी) देने गयी । ऊमा की माँ ने ऊमा का आदर किया उसका सिर पलूसा । परन्तु ऊमा के पिता अभी भी ऊमा से नाराज थे । उसके पिता ने कहा ऊमा तू क्यों आई है तेरे मेरे तो मार्ग ही अलग है । ऊमा ने कहा की मैने अपनी बेटी का विवाह रखा है मैं आपको बत्तीसी ( भात का निमंत्रण ) देने आयी हूँ । ऊमा के पिता और भाइयों ने बत्तीसी लेने से इंकार कर दिया और कहा की हम तेरे घर में पाँव भी नही रखेंगें और ना ही तेरी बेटी के विवाह में आएंगे । ऊमा अपने भाइयों और पिता के मुख से एसे वचन सुनकर रोने लगी । ऊमा की माता अपने पति जोखाराम को समझाती है की तुम ऊमा की बात मन लो बेटी को देने से कभी भी धन घटता नही है । परन्तु ऊमा के पिता नही मानते हैं । ऊमा निवण प्रणाम करके अपने मायके से चल पड़ती है । जब उमा ससुराल पहुंचती है तो ऊमा की देवरानी और जेठानी ऊमा को ताना मारती हैं क्योंकि उनको यह बात पहले ही किसी चुगलनी ने बता दी थी । ऊमा अपनी देवरानियो और जेठानियों की बात को नजरअंदाज कर देती है । ऊमा और उसके पति जाम्भोजी के पास जाते है । वे जाम्भोजी को सारी बत बताते है ।जाम्भोजी कहते हैं की आज से तुम मेरी बहन हो मैं तुम्हारा भात भरूंगा तुम बस भगवान का भजन करो और विवाह की तयारियां करो । जाम्भोजी से आज्ञा लेकर ऊमा ओर उसके पति वापिस अपने घर चले जाते हैं । जाम्भोजी अपने शिष्यों से कहते हैं की चलो हमें ऊमा का भात भरने चलना है । जाम्भोजी के साथ उनके लगभग चौदह हजार (14000) शिष्य उनके साथ भात भरने जाते है । उन्मे से कुछ हैं : - दिल्ली बादशाह सिकंदर लोदी , मेड़ता के राजा राव दूदा , राणा सांगा , झाली रानी , लूणकरण , महलू खान , सेंसा , बाजो , रणधिर । जाम्भोजी और उनके शिष्य रोटू गाँव में पहुंचे । जाम्भोजी ने ऊमा को नवरंग चुंदड़ी ओढ़ाई । जाम्भोजी और जाम्भोजी के सभी शिष्यों ने अपनी श्रद्धानुसार भात भरा । एक हजार तोले ( दस किलो ) सोना , दो सौ दुधारू गाय, सौ भैंसे, सवा लाख रुपया, सोलह बैल , आदि भात के रूप में ऊमा को प्राप्त हुए । जाम्भोजी ने रोटू गाँव में 3700 खेजड़ियों का बाग लगाया । गाँव के लोगो ने कहा की गुरुजी पक्षी हमारी फसल को नष्ट कर देंगे । फिर जाम्भोजी ने कहा की पक्षी तुम्हारी फसल का एक दाना भी नही नष्ट नही करेंगे जो तुम इन्हे अपनी श्रद्धानुसार दाना डालोगे ये वही खाएंगे । यह चीज हमे रोटू गाँव में आज भी देखने को मिलती है । जहांं पर जाम्भोजी ने ऊमा का भात भरा था वहां पर वर्तमान में मंदिर बना हुआ है । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

दूदा मेड़ता (खांडे) की कथा :-

राव जोधा के दो पुत्र थे । एक पुत्र का नाम राव दूदा तथा दूसरे पुत्र का नाम वरसिंह था। राव जोधा ने दोनों पुत्रों को मेड़ता का राज कार्य सौंपा था परंतु किसी मतभेद के कारण वर सिंह ने राव दूदा को देश निकाला दे दिया । राव दूदा सेना की सहायता लेने के लिए राव बिदा के पास जा रहा था लंबा सफर तय करने के बाद राव दूदा पीपासर नामक गांव के कुएं के पास रुका और वहां बैठकर विश्राम करने लगा । यह सन 1462 की बात है जब जाम्भोजी की आयु लगभग 11 वर्ष थी । जांभोजी गायों को पानी पिलाने के लिए कुएं के पास आए । जांभोजी सैकड़ों गायों को अकेले ही चरा रहे थे और उनका मार्गदर्शन कर रहे थे । इतनी गायों को एक साथ जल पिलाना संभव नहीं था क्योंकि स्थान कम था । जांभोजी एक तरफ खड़े होकर जितनी गायों की तरफ इशारा करते उतनी ही गाय जल पीकर वापस उसी स्थान पर चली जाती है । यह सब राव दूदा देख रहा है राव दूदा सोचता है कि जिस महापुरुष की बात ग‌ऊएं मानती हो उस महापुरुष की बात कोई पुरुष भी नहीं टाल सकता । राव दूदा ने सोचा मैं इनकी शरण ग्रहण कर लेता हूं । राव दूदा ने सोचा मैं तो राजपुत्र हूं यदि मैं सभियों के सामने इस बालक की शरण में गया तो मेरा अपमान होगा । राव दूदा ने सोचा कि जब यह बालक गायों को पानी पिलाकर दूर चला जाएगा तब मैं इसे एकांत में मिलूंगा । जब जांभोजी गायों को लेकर बहुत दूर चले गए । तब राव दूदा ने अपने घोड़े को तैयार किया और खूब दौड़ाया । परंतु जांभोजी और राव दूदा के बीच की दूरी बढ़ती ही जा रही थी कम नहीं हो रही थी । ऐसा इसलिए हो रहा था क्योंकि राव दूदा में अभी अहंकार था । जब तक कोई व्यक्ति अहंकार त्याग न दे तब तक उसे भगवान नहीं मिल सकते । राव दूदा ने सोचा कि सेवक घोड़े पर और भगवान पैदल है यह अच्छा नहीं है राव दूदा पैदल चलने लगा और उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए । कुछ ही दूर जाने पर समराथल के धोरे (टीले) पर जंभेश्वर भगवान ने राव दूदा को दर्शन दिए । राव दूदा जंभेश्वर भगवान के पैरों में गिर पड़ा । उसने अपनी पगड़ी उतार कर जांभोजी के चरणों में रख दी । पगड़ी को उतारकर किसी के चरणों में रखना यह चिन्ह है उसने पूर्ण समर्पण कर दिया है । जांभोजी ने राव दूदा को उठाया और कहा जाओ मेड़ता चले जाओ और अपना राज कार्य संभालो ।तुम्हारा बड़ा भाई वरसिंह तुम्हारा इंतजार कर रहा है। राव दूदा ने कहा मैं मेड़ता नहीं जा सकता क्योंकि मेरे भाई वरसिंह ने मुझे देश निकाला दे दिया है और उसने मेरा बहुत अपमान किया है । जांभोजी ने कहा तुम मेड़ता चले जाओ । जब तुम नागौर के पास पहुंचोगे तो तुम्हे दो घुड़सवार मिलेंगे वे तुम्हें ही लेने आ रहे हैं । जब से तुम मेड़ता से बाहर आए हो तुम्हारे भाई का गुस्सा शांत हो चुका है । उसे अपनी गलती का एहसास हो चुका है । राव दूदा अपने आप को धन्य समझने लगा और जाम्भोजी जी के बार-बार चरण स्पर्श करने लगा और कहां आप मुझे कोई अपनी चीज दे दें । जिसे मैं अपने पास चिन्ह के रूप में रख सकूं और आप मुझे कोई शस्त्र भी दें । जिससे मैं शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकूं । जांभोजी ने दूदा के कहने पर अपना एक वस्त्र और केर की लकड़ी तोड़कर दूदा को दे दी और कहा यह केर की लकड़ी कोई सामान्य लकड़ी नहीं है । जब भी तुम शत्रु से युद्ध करने जाओगे तो यह खांडे (तलवार) का रूप धारण कर लेगी ।(वर्तमान में खांडा रोटू में जांभोजी के मंदिर में रखा हुआ है) फिर दूदा प्रसन्न होकर मेड़ता की ओर रवाना हो गया । जैसा जांभोजी ने बताया वैसा ही हुआ नागौर के पास उसे दो घुड़सवार मिले जो दुदा को ही बुलाने आ रहे थे । मेड़ता जाने के बाद राव दूदा के भाई वरसिंह ने उसका स्वागत किया और मेड़ता का राज उसे दे दिया । राव दूदा राजा बन गया । इससे हमें शिक्षा मिलती है कि हमें अहंकार त्याग देना चाहिए क्योंकि अहंकार त्यागकर ही हमें ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

सेंसा भगत कथा :-

एक बार की बात है जांभोजी जाजीवाल धोरा पर उपदेश दे रहे थे । वहां पर सेंसा नाम का व्यक्ति मौजूद था । वह अपने आप को बड़ा भक्त समझता था । उसे अपनी धन और संपत्ति पर अभिमान था । जांभोजी ने उपदेश दिया कि हमें घर आए अतिथि का आदर करना चाहिए। वह अकाल का समय था । जांभोजी ने कहा कि अगर तुम्हारे पास एक रोटी है तो एक हिस्सा अतिथि को दो । तीन हिस्सों से अपना काम चलाओ और यदि अतिथि ज्यादा है तो एक हिस्सा अपने पास रखो और तीन हिस्से अतिथि को दे दो । जांभोजी ने कहा कि हमें कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए ।जांभोजी बार-बार सेंसा की तरफ देख रहे थे । सेंसा को भी पता चल गया कि जांभोजी यह बात उसी को कह रहे हैं । सेंसा ने कहा कि इस बात का ज्ञान मुझे है । मैं तो घर आए अतिथि को चाहे वह किसी भी जाति से संबंध रखता हूं किसी भी धर्म का हो , साधु हो , संत हो , कोई भी हो उसे भोजन करवाता हूं सर्दी का समय है मैं उनको रजाई भी देता हूं । सेंसा ने कहा कि मेरी गाय अच्छा दूध देती है । पूरे गांव में सबसे बड़ी खेती बाड़ी मेरी है । मेरे पास इतना पैसे हैं कि मुझे गिनने का भी समय नहीं है । जांभोजी ने कहा कि यह तेरा अभिमान है । सेंसा ने कहा कि मैं आपको निमंत्रण देता हूं । आप मेरे घर आए और प्रत्यक्ष ही देख लें । फिर जांभोजी ने अपनी वेशभूषा बदल ली । उन्होंने अपना पूरा रूप परिवर्तन कर लिया कोई भी उन्हें पहचान नहीं सकता था । वे सेंसा के घर गए और भिक्षा मांगी । सेंसे की स्त्री ने कहा कि यह भिक्षा का समय नहीं है कल आना । जांभोजी जी ने कहा कि भिक्षा तो मैं लेकर ही जाऊंगा । गुस्से में सेंसे की स्त्री 3 दिन पुराना धान लाई और जांभोजी की पत्रिका में जोर से कड़छी मार दी। जिससे उनकी पत्रिका टूट गई । वह पत्रिका आज भी जाम्भोजी जी के जांगलू मंदिर में है । जांभोजी ने रजाई की भी मांग की । सेंसे की स्त्री ने जांभोजी को बैलों की पुरानी गुदड़ी लाकर दे दी। उस समय सेंसा घर पर ही था । जाजीवाल धोरे पर शाम को जागरण हुआ । शाम को जागरण में सेंसा नहीं आया क्योंकि वह जांभोजी से नाराज था । जांभोजी ने कहा कि सुबह सभी लोग अपनी इच्छा अनुसार घी लेकर आना । गांव के सभी लोग थोड़ा थोड़ा घी लेकर आए क्योंकि वह अकाल का समय था । परंतु सेंसा खूब सारा घी लेकर आया यह दिखाने के लिए कि मैं धनी हूं । हवन पूरा हुआ जांभोजी ने कहा कि विचार करो तुमने मेरे उपदेश से क्या सीखा। सेंसा बोल पड़ा कि हम तो विचार करेंगे आप भी विचार करो । मैंने आपको निमंत्रण दिया फिर भी आप नहीं आए जांभोजी ने कहा मैं तुम्हारे घर गया था । फिर सेंसा ने पूछा कि आपको क्या कुछ मिला । तो जांभोजी ने सेंसा को वही बैलों की पुरानी गुदड़ी और तीन दिन पुराना धान दिखाया और जांभोजी ने कहा की मैं भगत के घर गया और उसने मेरी तरफ देखा भी नहीं । सेंसा जांभोजी के चरणों में गिर पड़ा । जांभोजी ने सेंसे को उठाया और कहा कि हमें अभिमान नहीं करना चाहिए अभिमान भव सागर में डुबाने वाला होता है । इससे हमें भी शिक्षा मिलती है कि हमें अभिमान और अहंकार नहीं करना चाहिए । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

रत्ना राहड़ कथा :-

जांगलू गांव में रत्ना राहड़ नाम का व्यक्ति रहता था । वह पूरे दिन भगवान के भजन तथा नाम को सम्मरण करता रहता था । उसके गुरु का नाम जंभेश्वर भगवान था । बचपन में ही उसका विवाह हो गया था। । पहली बार जब वह अपनी पत्नी को लेने जा रहा था तो वह ऊंट पर जा रहा था । वह अपने किसी भाई बंधु को साथ नही लेकर जा रहा था इसका कारण था की वह नही चाहता था की उसे भगवान के नाम सम्मरण करने में कोई परेशानी हो । रास्ते में रत्ने को एक साधु मिले । उसने साधु को निवण प्रणाम किया और कहा कि आप मेरे साथ मेरे ससुराल चलिए । साधु ने मना कर दिया । फिर रत्ने के कई बार आग्रह करने पर साधु रत्ने के साथ चलने के लिए तैयार हो गए । रत्ना तथा साधु विष्णु भगवान के नाम का सम्मरण तथा भजन करते हुए रत्ने के ससुराल पहुंच गए । वहां पर रत्ने की तो बहुत खातिरदारी हुई । परंतु रत्ने के ससुराल वालों को अच्छा नहीं लगा की रत्ना साथ में साधु को लेकर आया है । रत्ने के ससुराल वालों ने साधु से अच्छा व्यवहार नहीं किया । साधु को संध्या के समय जल नहीं दिया तथा बिस्तर भी नहीं दिए । यह बात रत्ने को पता चल जाती है और रत्ना साधु से कहता है कि अब हम यहां पर एक क्षण भी नहीं रुकेंगे जिस घर में संतों का आदर नहीं होता उसे घर में मैं एक भी क्षण नहीं रह सकता । वह अपनी पत्नी के पास जाता और कहता है कि तुम मेरे साथ चलो दोबारा मैं कभी भी इस घर में नहीं आऊंगा । फिर रत्ना एवं उसकी पत्नी वहां से अपने गांव जांगलू की तरफ रवाना हो जाते हैं । बीच में उन्होंने देखा कि एक शिकारी हिरण को पड़कर लेकर जा रहा था । रत्ने ने कहा की तुमने हिरन को क्यों पकड़ा है । तुम हिरन को छोड़ दो । शिकारी को पता चल गया कि रत्ना एक बिश्नोई है । शिकारी को पता था की बिश्नोई हिरण को नहीं ले जाने देगा इसलिए शिकारी ने कहा कि हमें तो ऐसा आदेश ठाकुर ने दिया है । वह अपने मालिक ठाकुर के पास जाता है रत्ना भी उसके साथ जाता है । वहां पर रत्ने ने ठाकुर से कहा कि तुम हिरन को छोड़ दो । ठाकुर ने कहा कि तुम यह ऊंट मुझे दे दो और तुम हिरण को ले जाओ । फिर रत्ने ने यह बात खुशी-खुशी स्वीकार कर ली और उन्होने ऊंट को ठाकुर को दे दिया । कुछ दूर जाने के बाद रत्ने और उसकी पत्नी ने हिरन को जंगल में छोड़ दिया । ठाकुर की बीमार पत्नी को आत्म ज्ञान हुआ और उसने अपने पति से कहा की तुम बिश्नोई को वापिस बुला लो और उसका ऊंट उसको वापिस दे दो वरना तुम्हारी ठकुराई चली जएगी । ठाकुर ने अपने आदमियों को बिश्नोई को वापिस लाने के लिए भेजा । बिश्नोई और उसकी पत्नी वापिस ठाकुर के दरबार में आ गए । ठाकुर ने कहा की बिश्नोई भाई तुम अपने ऊंट को वापिस ले जाओ । बिश्नोई(रत्ना) ने कहा की मैं ये ऊंट वापिस नही ले सकता क्योंकि ऊंट को मैंने तुम्हे हिरन के बदले दे दिया है । फिर रत्ने ने कहा की अगर तुम मुझे परवाना लिखकर दे दो की तुम्हारे क्षेत्र में कोई भी हरा वृक्ष नही कटेगा और किसी भी जीव का शिकार नही होगा तो मैं तुम्हारी पत्नी को ठीक कर सकता हूँ । ठाकुर इस बात पर राजी हो गया । रत्ने ने फिर कच्चा धागा और जल मंगवाया । फिर विष्णु भगवान का नाम सम्मरण करके रत्ने ने धागे को ठाकुर की पत्नी के गले में बाँध दिया और ठाकुर की पत्नी ठीक हो गयी । ठाकुर ने रत्ने की पत्नी को अपनी धर्मकन्या बना लिया और रीति रिवाज़ के अनुसार उसे अपनी बेटी समझकर उसको ऊंट और दहेज दाईजा दिया । फिर रत्ना और उसकी पत्नी अपने गाँव की और चल पड़े । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

उद्धव नैण कथा :-

राजस्थान के मांगलोद नामक गांव में महामाई का एक पुजारी रहता था । जिसे मारवाड़ी भाषा में भोंपा कहते हैं । उस पुजारी का नाम उद्धव नैण था । उसने खुद ही मंदिर बना कर मन्मुख पूजा शुरू की और लोगो को भूत , पितृ और चेडों की झूठी कहानी सुनाकर लूटता था । यूपी प्रांत के कुछ विश्नोई समराथल धोरे जा रहे थे । वे बीच में मांगलोद गांव में रुके ।उद्धव उन बिश्नोईयों के पास गया और पूछा आप कौन हो , कहां से आए हो और कहां जा रहे हो । उन बिश्नोईयों ने बताया हम यूपी प्रांत के रहने वाले हैं हम गुरु जंभेश्वर भगवान के पास समराथल धोरे जा रहे हैं । फिर उद्धव पूछा तुम समराथल धोरे क्यों जा रहे हो। बिश्नोइयो ने कहा कि वहां पर गुरु जंभेश्वर भगवान हमें ज्ञान उपदेश देंगे जिससे हम जन्म मरण के चक्कर से छूट जाएंगे । उद्धव ने कहा यह सब तो तुम्हें मेरी माई दे सकती है तुम चलो महमाई के मंदिर में धोक लगा लो । बिश्नोइयों ने कहा हम गुरु जंभेश्वर भगवान की सीख पर चलते हैं हम कल्पित देवों को नहीं ध्याते । बिश्नोईयों ने उद्धव को कहा कि तुम अपनी माई से मुक्ति लेकर आओ । फिर उद्धव ने कहा कि इसके बदले मैं तुमसे मनचाहा धन ले लूंगा । बिश्नोईयों ने कहा ठीक है । उद्धव महमाई के मंदिर में गया और पूजा उपासना की । महामाई प्रकट हो गई और पूछा उद्धव बोल तेरे को क्या चाहिए । उद्धव ने कहा मुझे मुक्ति चाहिए जिसको मैं बिश्नोईयों को देकर मनचाहा धन ले लूंगा । महमाई ने कहा मुक्ति मेरे पास नहीं है । मैं तो काम बिगड़ सकती हूं स्वस्थ व्यक्ति को रोगी बना दूं , अंधा बना दूं , बहरा बना दूं , लंगड़ा कर दूं , घर की सुख शांति छीन लूं यह सब मेरा काम है । उद्धव को अपनी महामाई के बारे में पता चल गया वह दौड़ता हुआ बिश्नोईयों के पास गया और उनको सारी बात बताई । बिश्नोइयों ने कहा तुम हमारे साथ समराथल धोरे चलो गुरु जंभेश्वर भगवान तुम्हें ज्ञान उपदेश देंगे और तुम्हें मुक्ति मिलेगी तुम आनंद से अपना आगे का जीवन व्यतीत करोगे । उद्धव बिश्नोईयों के साथ समराथल धोरे चला गया । वहां पर गुरु जंभेश्वर भगवान ने उपदेश दिया और उद्धव से 29 नियम धारण करवाए । इससे उसकी जिंदगी संवर गई । गुरु जंभेश्वर भगवान ने उद्धव को सही मार्ग दिखाया । इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कल्पित देवों और जन्मे हुए जीवो की पूजा नहीं करनी चाहिए गुरु जंभेश्वर भगवान ने षेत्रपाल , पीर , भैरव आदि को पूजने से भी मना किया । हमें केवल परमपिता परमात्मा विष्णु भगवान एवं उनके अवतारों के नाम का स्मरण करना चाहिए और उन्हीं को पूजना चाहिए । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

बाजो जी कथा :-

एक समय की बात है राजस्थान के जसरासर गांव में बाजो नाम का एक व्यक्ति रहता था । वह कल्पित देवों की पूजा किया करता था । जिस कारण उसके घर में लोथ पुत्र का जन्म हुआ । लाेथ वह होता है जिसके हाथ पांव सही से काम ना करें । जो हिल डुल ना सके । बाजो जी का समाज में बहुत सम्मान था । उसे डर था कि अगर लोगों को यह बात पता चल गई तो उसका बहुत अपमान होगा । उसने इस बात को छुपाने की बहुत कोशिश की है परंतु इस बात को किसी व्यक्ति ने गांव वालों को बता दिया था । बाजो जी ने पुत्र के जन्म होने के कारण भोज रखा जहां उसने सभी गांव के लोगों को बुलाया । सभी गांव के लोगों ने बाजो जी के पुत्र को देखा और उन्हें लगा की बाजो जी का पुत्र तो स्वस्थ है । फिर कुछ वर्षों बाद बाजो ने सभी ग्राम वासियों को कह दिया की उसने अपने पुत्र को काशी भेज दिया है पढ़ने-लिखने के लिए परंतु बाजो जी ने यह बात झूठ कही थी । उनका पुत्र तो उन्हीं के घर में एक कमरे में बंद था । एक व्यक्ति अपनी बेटी का विवाह बाजो जी के पुत्र से करवाने का प्रस्ताव लेकर आया उस व्यक्ति को नहीं पता था कि बाजो जी का पुत्र लोथ है । बाजो जी ने यह सोचकर विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार किया की वह अपने पुत्र का इलाज करवा लेगा । उनके घर उसकी पुत्रवधू आ गई (क्योंकि उस समय वर के विवाह में उपस्थित न होने पर भी विवाह संभव था )। बाजो जी की पुत्रवधू को नहीं पता था कि उसका पति लोथ है । जब उसकी पुत्र वधू गांव में कु‌एं पर पानी लाने के लिए गई तो वहां पर स्त्रियों ने बता दिया कि तुम्हारा पति तो लोथ है क्योंकि उन स्त्रियों को पता था । उन स्त्रियों ने कहा तुम्हारी सासू ने तुमसे यह बात छुपाई है । तुम्हारा पति तुम्हारे घर के एक कमरे में बंद है जिस कमरे में ताला लगा रहता है । उस समय बाजो जी समराथल धोरे गए थे । वहां पर गुरु जंभेश्वर भगवान ने उसको विष्णु भगवान के नाम को स्मरण करने की महिमा बताई । बाजो जी विष्णु भगवान के नाम को स्मरण करते हुए घर आ गए । इससे पहले ही उसकी पुत्रवधू घर पहुंच चुकी थी और उसने अपनी सासू मां से कहा कि आप मुझे कमरे की चाबी दे दो । मुझे मेरे पति से मिलना है । मेरा पति जैसा भी है मैं उसकी सेवा करूंगी । मेरे भाग्य में जो लिखा है वह मुझे स्वीकार है । बाजो जी ने गुरु जंभेश्वर भगवान के बताएं अनुसार विष्णु भगवान के नाम का स्मरण किया और फिर जब उसकी पुत्रवधू ने उसे कमरे का दरवाजा खोला तो उसने देखा कि उसका पति तो स्वस्थ है । बाजो जी का पुत्र कमरे से बाहर आया और अपने माता-पिता के चरण स्पर्श किए और आशीर्वाद लिया। वे हंसी खुशी से व्यतीत करने लगे । गुरु जंभेश्वर भगवान ने गृहस्थी में सबसे पहला जागरण बाजो जी के घर पर ही किया था । बोलो विष्णु भगवान की ... जय हो । गुरु जम्भेश्वर भगवान की ... जय हो ।

Contact Us

[email protected]

Developer : Shivansh Bishnoi
Hisar, Haryana , India
© 2023 All rights reserved